Natasha

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राजा की रानी

मुँह उठाकर देखा, तो राजलक्ष्मी चुपचाप बैठी खिड़की के बाहर देख रही है। सहसा मालूम हुआ कि मैंने कभी किसी दिन इससे प्रेम नहीं किया। फिर भी इसे ही मुझे प्रेम करना पडेग़ा। कहीं किसी तरफ से भी निकल भागने का रास्ता नहीं है। संसार में इतनी बड़ी विडम्बना क्या कभी किसी के भाग्य में घटित हुई है? और मज़ा यह कि एक ही दिन पहले इस दुविधा की चक्की से अपनी रक्षा करने के लिए अपने को सम्पूर्ण रूप से उसी के हाथ सौंप दिया था। तब मन-ही-मन जोर के साथ कहा था कि तुम्हारी सभी भलाई-बुराइयों के साथ ही तुम्हें अंगीकार करता हूँ लक्ष्मी! और आज, मेरा मन ऐसा विक्षिप्त और ऐसा विद्रोही हो उठा। उसी से सोचता हूँ, संसार में 'करूँगा' कहने में और सचमुच के करने में कितना बड़ा अन्तर है!
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साँइथिया स्टेशन पर जब गाड़ी पहुँची तब दिन ढल रहा था। राजलक्ष्मी के गुमाश्ता काशीराम स्वयं स्टेशन पर नहीं आ सके, वे उधर के इन्तज़ाम में लगे हुए हैं। मगर दो आदमियों को उन्होंने चिट्ठी लिखकर भेज दिया है। उनके रुक्के से मालूम हुआ कि ईश्वर की इच्छा से 'अब', अर्थात् उनके घर में और उनकी गंगामाटी में सब तरह से कुशल है। आज्ञानुसार स्टेशन के बाहर चार बैलगाड़ियाँ तैयार खड़ी मिलेंगी जिनमें से दो तो खुली हुई हैं और दो छाई हुई। एक पर बहुत-सा सूखा घास और खजूर की पत्तियों की चटाई बिछा दी गयी है और वह स्वयं मालकिन साहबा के लिए है। दूसरी में मामूली थोड़ा-सा घास डाल दिया गया है, पर चटाई नहीं है वह नौकर-चाकर आदि अनुचरों के लिए है। खुली हुई दो गाड़ियों पर असबाब लादा जायेगा। और 'यद्यपि स्यात्' स्थानाभाव हो, तो पियादों को हुक्म देते ही वे बाजार से और भी एक गाड़ी लाकर हाज़िर कर देंगे। उन्होंने और भी लिखा है कि भोजनादि सम्पन्न करके संध्याब से पूर्व ही रवाना हो जाना वांछनीय है। अन्यथा मालकिन साहबा की सुनिद्रा में व्याघात हो सकता है। और इस विषय में विशेष लिखा है कि मार्ग में भयादि कुछ नहीं है, आनन्द से सोती हुई आ सकती हैं।

मालकिन साहबा रुक्का पढ़कर कुछ मुसकराईं। जिसने उसे दिया उससे भयादि के विषय में कोई प्रश्न न करके उन्होंने पूछा, “क्यों भाई, आसपास में कोई तलाव-अलाव बता सकते हो? एक डुबकी लगा आती।”

“है क्यों नहीं, माँ जी। वह रहा वहाँ...”

“तो चलो भइया, दिखा दो” कहती हुई वह उस आदमी को और रतन को साथ लेकर न जाने कहाँ की एक अनजान तलैया में स्नानादि करने चली गयी। बीमारी आदि का भय दिखाना निरर्थक समझकर मैंने प्रतिवाद भी नहीं किया। ख़ासकर इसलिए कि अगर वह कुछ खा-पी लेना चाहती हो, तो इससे वह भी आज के लिए बन्द हो जायेगा।

लेकिन, आज वह दसेक मिनट में ही लौट आई। बैलगाड़ी पर असबाब लद रहा है और मामूली-सा एक बिस्तर खोलकर सवारी वाली गाड़ी में बिछा दिया गया है। मुझसे उसने कहा, “तुम क्यों नहीं इसी वक्त कुछ खा-पी लेते? सभी कुछ तो आ गया है।”

मैंने कहा, “दो!”

पेड़ के नीचे आसन बिछाकर एक केले के पत्ते पर मेरे लिए वह खाना परोस रही थी और मैं निस्पृह दृष्टि से सिर्फ उसकी ओर देख रहा था। इतने में एक मूर्ति ने आकर और सामने खड़े होकर कहा, “नारायण!”

राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर बायें हाथ से धोती का पल्ला खींचते हुए मुँह उठाकर ऊपर देखा और कहा, “आइए।”

अकस्मात् यह नि:संकोच निमन्त्रण का शब्द सुनकर मुँह उठाकर देखा, तो, एक साधु खड़ा है। बहुत ही आश्चर्य हुआ। उसकी उमर ज्यादा नहीं थी, वह शायद बीस-बाईस के भीतर ही होगा, मगर देखने में जैसा सुकुमार वैसा ही सुन्दर! चेहरा कृशता की ओर ही जा रहा है, शायद कुछ लम्बा होने के कारण ही ऐसा मालूम हुआ, मगर रंग तपे-सोने जैसा। ऑंखें, भौहें, चेहरा और ललाट की बनावट निर्दोष। वास्तव में, पुरुष का इतना रूप मैंने कभी देखा हो, ऐसा नहीं मालूम हुआ। उसका गेरुआ परिधान-वस्त्र जगह-जगह फटा हुआ है, गाँठें बँधी हुई हैं। बदन पर गेरुआ ढीला कुरता है, उसकी भी यही दशा है; पैरों में पंजाबी जूता है, उसकी हालत भी वैसी ही है। खो जाने पर उसके लिए अफसोस करने की जरूरत नहीं। राजलक्ष्मी ने ज़मीन से सिर टेककर प्रणाम करके आसन बिछा दिया। फिर मुँह उठाकर कहा, “मैं जब तक भोजन परोसने की तैयारी करूँ, तब तक आपको मुँह-हाथ धोने के लिए जल दिया जाय।”
साधु ने कहा, “हाँ हाँ, लेकिन आपके पास मैं दूसरे ही काम के लिए आया था।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छी बात है, आप भोजन करने बैठिए, और बातें पीछे होंगी। पर लौटने के लिए टिकट ही चाहिए न? सो मैं खरीद दूँगी।” इतना कहकर उसने मुँह फेरकर अपनी हँसी छिपा ली।

साधुजी ने गम्भीरता के साथ जवाब दिया, “नहीं, उसकी जरूरत नहीं। मुझे खबर मिली है कि आप लोग गंगामाटी जा रहे हैं। मेरे साथ एक भारी बॉक्स है, उसे अगर आप अपनी गाड़ी में ले चलें तो अच्छा हो। मैं भी उसी तरफ जा रहा हूँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “इसमें कौन-सी बड़ी बात है; मगर आप खुद?”

“मैं पैदल ही जा सकता हूँ। ज्यादा दूर नहीं, छै-सात कोस ही तो होगा।”

राजलक्ष्मी ने और कुछ न कहकर रतन को बुला के जल देने के लिए कहा और खुद ढंग के साथ अच्छी तरह साधुजी के लिए भोजन परोसने में लग गयी। यह राजलक्ष्मी की खास अपनी चीज है, इस काम में उसका सानी मिलना मुश्किल है।

साधु महाराज खाने बैठे, मैं भी बैठ गया। राजलक्ष्मी मिठाई के बर्तन लिये पास ही बैठी रही। दो ही मिनट बाद राजलक्ष्मी ने धीरे-से पूछा, “साधुजी, आपका नाम?”

साधु ने खाते खाते कहा, “वज्रानन्द।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “बाप रे बाप! और पुकारने का नाम?”

उसके कहने के ढंग से मैंने उसकी तरफ देखा तो उसका सारा चेहरा दबी हुई मुस्कराहट से चमक उठा था, मगर वह हँसी नहीं। मैंने भोजन करने में मन लगाया। साधुजी ने कहा, “उस नाम के साथ तो अब कोई सम्बन्ध नहीं रहा। न अपना रहा और न दूसरों का।”

राजलक्ष्मी ने सहज ही हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “हाँ, सो तो ठीक है।” परन्तु क्षण-भर बाद वह फिर पूछ बैठी, “अच्छा साधुजी, आपको घर से भागे कितने दिन हुए?”

प्रश्न बहुत ही अभद्र था। मैंने निगाह उठाकर देखा, राजलक्ष्मी के चेहरे पर हँसी तो नहीं है, पर जिस प्यारी के चेहरे को मैं भूल गया था, इस समय राजलक्ष्मी की तरफ देखकर निमेष-मात्र में वही चेहरा मुझे याद आ गया। उन पुराने दिनों की सारी सरसता उसकी ऑंखों, मुँह और कण्ठ-स्वर में मानो सजीव होकर लौट आई है।

साधु ने एक कौर नीचे उतारकर कहा, “आपका यह कुतूहल ही अनावश्यक है।”

राजलक्ष्मी जरा भी क्षुण्ण नहीं हुई, भले मानसों की तरह सिर हिलाकर बोली, “सो तो सच है। लेकिन, एक बार मुझे बहुत भुगतना पड़ा था, इसी से...” कहते हुए उसने मेरी ओर लक्ष्य करके कहा, “हाँ जी, तुम अपना वह ऊँट और टट्टू का किस्सा तो सुनाना! साधुजी को जरा सुना तो दो, अरे रे, भगवान भरोसा! घर में शायद कोई याद कर रहा है।”

साधुजी के गले में, शायद हँसी रोकने में ही, फन्दा लग गया। अब तक मेरे साथ उनकी एक भी बात नहीं हुई थी, मालकिन महोदय की ओट में मैं कुछ-कुछ अनुचर-सा ही बना बैठा था। अब साधुजी ने फन्दे को सँभालते हुए यथासाध्या गम्भीरता के साथ मुझसे पूछा, “तो आप भी शायद एक बार सन्यासी...”

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